मंगलवार, 10 अगस्त 2021

पुराना मकान हो या इश्क़ पहला
यादगार हो जाती है।।
गुनगुनाता हूं मैं तेरे अल्फाजों को
जाने क्या मदहोशी हैं, तेरे ख्यालों मैं।।


ए वक्त कर बयां हाल उसका
उस जालिम का कोई संदेशा दे।।
उस इम्तियां की घड़ी
में गर संभल जाते
तो खैरियत ना पूछ जाने जां
वक्त भी क्या खूब होता।।
खो कर पता चला, उसकी अहमियत
अब एहसास हुआ, उस शख्स की शख्सियत।।
वो इंसान ही खास था
मेरे लिए मेरे तकदीर के लिए।।
पर न जाने, लगी किसकी बुरी नज़र
जो खिलते हुए फूलों को
डाली से चूर चूर किया ।।
जहां दोनों प्रेमी हो रूठे, तो बताओ कौन आए उन्हे मानने, 
किसी एक को रांजी मंजी होना ही होगा।।
गर नाराज़ थे तुम, तो जनाब खफा हम भी थे
बहाने किसी भी, मिजाज़ की खबर तो लेते।।
क्या मलाल उस जनाब का
जरा खैरियत तो पूछ लेते, 
के 
गुलशन में गुल हैं के नहीं।।
किस की गलती मानू, किस को कसूरवार ठहराऊ
मुझ को या तुमको, या फिर उस शख्स को
जो अंजाम हुआ, हिज़्र~ए~गुलनार~ए~ मुसाफ़िर का
ये अंजाम कहा तक जाएगा
देखना हैं सफर मुसाफ़िर का।।
किस हद सक गुजरेगा सफर
देखना हैं सफर "मुसाफ़िर" का।।



ठहरते, रुक जाते, मनाते तुमको
वक्त को पर मंजूर कुछ और था।।
ढल चुका हैं मेरे ख्वाबों का सूर्यास्त
जो कभी जगमगाता था, बन कर प्रभात
अब कभी सूर्योदय ना होगा, उन ख्वाबों का
जो कभी जिन्दगी बन कर, चहक महक रहे थे।।
तू बेशक रूठी थी मुझ से
मनाने को भी राजी, मगर
इस "मुसाफ़िर" को कौन मनाएं
जो अब तक हैं खफा तुझ से।।
एक मैं था जो तुझे मुड़ कर देखा था
तू ने मगर चाह कर भी ना देखा मुझे।।
इक तू इक तू ही थी
जिन्दगी और मौत,
मौत तो न आई मुझे, पर 
मौत से बदतर जिंदगी हैं मेरी।।


मैं रूठ जाऊ अपने आप से
तो मुझें मनाएं कौन!!

इश्क जिस्मानी नही

इश्क़ कोई जिस्म या शारीरिक संबध नहीं इश्क़ वह रूह, रूहानियत होती है, जो... जिसका जिक्र संभव नहीं।